Saturday, June 11, 2011

नई कहानी साक़ी.....

कभी नहीं दोहराता कोई बात पुरानी साक़ी,
हर बार देर से आने की सुनाता है नई कहानी साक़ी.....

aitbaar ke qabil..

Chal ab meri sans hi zamant rakh le tu

Shayad is tarah ban jaon mein teray aitbaar ke qabil....

mai waqt hoon

subah shaam...meraa raastaa na dekh...
mai waqt hoon...apane waqt se aaungaa...

खुदा ही बचाए साक़ी

तेरी आँख से पीकर जो होश की बातें सुनाए साक़ी,
ऐसे पत्थरदिलों से तो हमको खुदा ही बचाए साक़ी...

ruswaa na kiya

tujh'ko ruswaa na kiya khud bhi pashemaan na hue
ishq ki rasm ko is tarha nibhaayaa humnein !

ashk

ashk aankhon mein kab naheen aataa...
lahoo aataa hai jab naheen aataa...

manzil se guzar ja

aye qaafilaa e shouq...merey dil se guzar jaa...
manzil kee tamannaa liye...manzil se guzar jaa...

a rastaa bhoolun

nahi masroof main itnaa...ke ghar kaa rastaa bhoolun...
koi jab muntazir na ho...to ghar achhe nahin lagtey...

khwaab khwaab hotey hai

subah ke ujaalon mein...dhundhataa hai tabeerein...
dil ko kaun samajhaaye...khwaab khwaab hotey hai...

yahaa mohobbate

yahaa mohobbate nafraton me badalti hai...
zindagee kahaa se kahaa le aa gayi hume...

bohot aawargee kar lee

yeh sab raaste ke saathi hai...ek din chhod jaayenge...
chalo ab ghar chalo mohsin...bohot aawargee kar lee...

रिश्ते बनते हैं बड़े धीरे-से

रिश्ते बनते हैं बड़े धीरे-से बनने देते..
कच्चे लम्हे को ज़रा शाख़ पे पकने देते...

एक चिंगारी का उड़ना था कि पर काट दिये
आँच आयी थी ज़रा आग तो जलने देते
कच्चे लम्हे को ज़रा शाख़ पे पकने देते

एक ही लम्हे पे इक साथ गिरे थे दोनों
ख़ुद सँभलते या ज़रा मुझको सँभलने देते
कच्चे लम्हे को ज़रा शाख़ पे पकने देते

रिश्ते बनते हैं बड़े धीरे-से बनने देते
कच्चे लम्हे को ज़रा शाख़ पे पकने देते

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई


घोटाले करने की शायद दिल्ली को बीमारी है..
रपट लिखाने मत जाना तुम ये धंधा सरकारी है...

तुमको पत्थर मारेंगे सब रुसवा तुम हो जाओगे..
मुझसे मिलने मत आओ मुझपे फतवा जारी है...

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आपस में सब भाई हैं..
इस चक्कर मेँ मत पड़िएगा ये दावा अख़बारी है...

भारतवासी कुछ दिन से रूखी रोटी खाते हैं..
पानी पीकर जीते हैं महँगी सब तरकारी है...

जीना है तो झूठ भी बोलो घुमा-फिरा कर बात करो..
केवल सच्ची बातें करना बहुत बड़ी बीमारी है...

वही शख्स

अब तो ले दे के वही शख्स बचा है मुजमे,
मुजको मुजसे अलग करके छूपा है मुजमे.

आँखों में भी नमी-सी है

हर ख़ुशी में कोई कमी-सी है
हँसती आँखों में भी नमी-सी है

दिन भी चुप चाप सर झुकाये था
रात की नब्ज़ भी थमी-सी है

किसको समझायें किसकी बात नहीं
ज़हन और दिल में फिर ठनी-सी है

ख़्वाब था या ग़ुबार था कोई
गर्द इन पलकों पे जमी-सी है

कह गए हम ये किससे दिल की बात
शहर में एक सनसनी-सी है

हसरतें राख हो गईं लेकिन
आग अब भी कहीं दबी-सी है

जैसा रखे.

दिल भी नादान उस शख्स से वास्ता रखे...
जो ना कीसी और का होने दे ना अपना रखे.
ये चाहत है... या इनायत है 'फराझ'....
हम राझी है वो जीस हाल मे रखे..जैसा रखे.

हालत-ए-दर्द

ए चारासाझ..! हालत-ए-दर्द -ए-हयात ना पूछ...
कुछ बात है..जो कह नही सकते झुबां से हम.