अपने ही सपनो से रंजिशे कैसी
बेवजहा बस्तियों में ये मुफ़्लसि कैसी
'आबरू' के इस खेल में यु मशगूल हो गए हम भी
आइनों की महफ़िल में फिर ये 'अपनी बेबसी' कैसी
मजहबी-कागज़ या कागज़ का मजहब ही तो है
किताबो में गुथे पन्नो से ये रवायातो की बू कैसी ……
बना के मजार ना हमको इज्ज़त देना तुम रहबरों
शर्मिंदा इंसानियत की ये 'खुदाई' से जमानत कैसी
अपने ही सपनो से रंजिशे कैसी …
बेवजहा बस्तियों में ये मुफ़्लसि कैसी ……!!!