वह अन्धेरा कोना
याद आते ही सिहर
उठता है आज भी
मेरा मन ...
परछाई तक साथ
छोड़ जाती थी जहाँ
सन्नाटे की आवाज़
ज़ोर से आती वहां
याद आते ही सिहर
उठता है आज भी
मेरा मन ....
तन अकेला पर
भीड़ मन में बढ़ जाती
बस रात्रिचर प्राणी
की वाणी कानों में आती
याद आते ही सिहर
उठता है आज भी
मेरा मन ....
चिरपरिचित दिन में
जो अपना था लगता
रात ढक लेती थी
उस अपनेपन को
याद आते ही सिहर
उठता है आज भी
मेरा मन .....
हवा से वृक्ष की डाली
जो झुकती ऐसा लगता
कि पीछे है मेरे कोई
जो बुला रहा है
याद आते ही सिहर
उठता है आज भी
मेरा मन ....
व्यथा मेरे मन की
कोई समझ न पाता
बचपन का वह डर
किसी को नहीं सुहाता
मेरे आँगन में ही था
वह अन्धेरा कोना
याद आते ही सिहर
उठता है आज भी
मेरा मन ....
याद आते ही सिहर
उठता है आज भी
मेरा मन ...
परछाई तक साथ
छोड़ जाती थी जहाँ
सन्नाटे की आवाज़
ज़ोर से आती वहां
याद आते ही सिहर
उठता है आज भी
मेरा मन ....
तन अकेला पर
भीड़ मन में बढ़ जाती
बस रात्रिचर प्राणी
की वाणी कानों में आती
याद आते ही सिहर
उठता है आज भी
मेरा मन ....
चिरपरिचित दिन में
जो अपना था लगता
रात ढक लेती थी
उस अपनेपन को
याद आते ही सिहर
उठता है आज भी
मेरा मन .....
हवा से वृक्ष की डाली
जो झुकती ऐसा लगता
कि पीछे है मेरे कोई
जो बुला रहा है
याद आते ही सिहर
उठता है आज भी
मेरा मन ....
व्यथा मेरे मन की
कोई समझ न पाता
बचपन का वह डर
किसी को नहीं सुहाता
मेरे आँगन में ही था
वह अन्धेरा कोना
याद आते ही सिहर
उठता है आज भी
मेरा मन ....