Wednesday, April 29, 2015

दास्तां

कभी मेरे दर पे तू भूलकर आती भी नहीं..
अपनी कोई दर्द भरी दास्तां सुनाती भी नहीं....
तेरे साये को भी मालूम नहीं मेरा नाम-पता...
जुबां तो है मगर तू मुझसे पूछती भी नहीं...
तू बता दे मुझे सच क्या है और झूठ क्या...
मैं क्या जानूंगा जब तू कहीं बोलती भी नहीं...
मैं सोचूं भी तो तू मुझको कहां मिलती है..
मुझे खोने के खयाल से तू डरती भी नही..!!!

बड़े-बूढ़ों की दुवा सी लगती है

बहुत प्यारी वो मुझे बड़े-बूढ़ों की दुवा सी लगती है
जब मुझे छूती है, तो सुबह की हवा सी लगती है
उसकी पाक रूह में है रौनक हजारों चाँद-तारों की
वह पुकारती है मुझे तो रब की सदा सी लगती है
जी करता है नज़रें नहीं हटे उसके मासूम चेहरे से
जब वह हंसती है तो हर दर्द की दवा सी लगती है
बाहों में बांधकर देती है जब वो मखमली सहारा तो
धरा को तृप्त करने वाली काली घटा सी लगती है
पास आकर आँखों से पूछती है जब कैसे हो ‘मधु’