Wednesday, April 29, 2015

बड़े-बूढ़ों की दुवा सी लगती है

बहुत प्यारी वो मुझे बड़े-बूढ़ों की दुवा सी लगती है
जब मुझे छूती है, तो सुबह की हवा सी लगती है
उसकी पाक रूह में है रौनक हजारों चाँद-तारों की
वह पुकारती है मुझे तो रब की सदा सी लगती है
जी करता है नज़रें नहीं हटे उसके मासूम चेहरे से
जब वह हंसती है तो हर दर्द की दवा सी लगती है
बाहों में बांधकर देती है जब वो मखमली सहारा तो
धरा को तृप्त करने वाली काली घटा सी लगती है
पास आकर आँखों से पूछती है जब कैसे हो ‘मधु’

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