Wednesday, January 11, 2012

एक मेरा हाथ ही ना थामा उसने

जब कभी चाहे अंधेरों में उजाले उसने

कर दिया घर मेरा शोलों के हवाले उसने



उस पे खुल जाती मेरे शौक की शिद्दत सारी

देखे होते जो मेरे पांव के छाले उसने



जिसका हर ऐब ज़माने से छुपाया मैने

मेरे किस्से सर-ए-बाज़ार उछाले उसने



जब उसे मेरी मोहब्बत पर भरोसा ही ना था

क्यों दिये मेरी वफाओं के हवाले उसने



एक मेरा हाथ ही ना थामा उसने फराज़

वरना गिरते हुए तो कितने ही संभाले उसने

No comments:

Post a Comment