Tuesday, May 14, 2013

स्त्रियाँ

स्त्रियाँ घरों में रह कर बदल रही हैं
पदवियाँ पीढी दर पीढी स्त्रियाँ बना रही हैं
उस्ताद फिर गुरु अपने ही दो-चार बुझे-अनबुझे
शव्दों से

दे रही हैं ढाढ़स बन रही हैं ढाल
सदियों से सह रही हैं मान-अपमान घर और बाहर.
स्त्रियाँ बढा रही हैं मर्यादा कुल की ख़ुद अपनी ही
मर्यादा खोकर

भागम-भाग में बराबरी कर जाने के लिये
दौड रही हैं पीछे-पीछे
कहीं खो रही हैं
कहीं अपनापन
कहीं सर्वस्व.

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