Friday, May 27, 2011

ख़ुदा से पहले मां-बाप

कुछ सीखो इनसे , ये दरख्तो पे अपने घर बनाते हैं
बेठिकाना पंछि भी , हमसे ज्यादा खुश नजर आते हैं


जब ख्वाब मे दीन-ए-इलाही को मुकम्मल देखता हुं
चॉद पे बैठ कर, फ़रिस्ते मुझसे मिलनें आते हैं


ख़ुदा नहीं बनते हुजूम लगनें से सियासतगार
देता वही है , लोग जहॉ दुआ मे अर्जियॉ लगाते हैं


शायरों की ज़िदगी कोई रंगीन कहानीं नहीं
ये जितना रोते है, उतना मुस्कुरा के गाते हैं

मयख़ाना है मेरे घर के सामनें तो मैं क्या करु

सुबह लोग मुझे हर शाम का मंजर बतातें हैं


महीनों बुशट का ज़ेब नहीं सिलवा पाये थे अब्बा
'शेष' जानता है ख़ुदा से पहले मां-बाप आते
--अम्बरीष'शेष'

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