Friday, July 1, 2011

गिला कुछ भी नहीं

यूँ तेरी निगाहों से गिला कुछ भी नहीं था
इस दिल ने तो बेकार यूँ ही बैठे बिठाये
वीरानी-ए-लम्हात को बहलाने की ख़ातिर
अफ़साने गढ़े बातें बना ली थीं हज़ारों
ये इश्क़ का अफ़्साना जो फिर छेड़ा है तू ने
बेकार है अब वक़्त कहाँ उस को सुनूँ मैं
जब तुम को फ़राग़त न थी अब मुझ को नहीं है

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