Wednesday, April 25, 2012

में भी कितना पागल हूँ ना

में भी कितना पागल हूँ ना
संग हवा के उड़ना चाहूं
भोवरा बन कर नगरी नगरी
गुलशन गुलशन फिरना चाहूं
फूलों के सब रंग चुरा कर
कपडे अपने रंगना चाहूं
में भी कितना पागल हूँ ना !


चांदनी शब् को खुनक हवा में
चाँद नगर को जाना चाहूं
अम्बर के इक इक तारे को
दामन में भर लेना चाहूं
भाग के सारे नन्हे जुगनू
मुठी में बंद करना चाहूं
में भी कितना पागल हूँ ना !


कभी कभी उन नज़रों के में
गोंगे सपने पढ़ना चाहूं
उस की सोचूँ के जेनी पैर
नंगे पावों में चढ़ना चाहूं
जानता हूँ नामुमकिन है ये
फिर भी कितना पागल हूँ में
जाने क्या क्या करना चाहूं
भोवरा खुश्बो बादल बन कर
संग हवा के उड़ना चाहूं
में भी कितना पागल हूँ ना

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