Thursday, May 7, 2015

मगर कैसे

बहम सब दूर किये यारों ने सच मगर कैसे,
पर्दा-ए-फरेब यूं हटा जाकर अब मगर कैसे?
धोखा देना ही बन गई थी फितरत जिनकी,
बाज आएंगे अपनी हरकत से वो मगर कैसे?
चला था बज़्म ढूंढने को मैं इंसानी बस्ती में,
कदम-कदम पे मिले आदमी जब मगर कैसे।
जिनकी आदत में और नीयत में भी धोखा है,
सोचते अब वही धोखा तो हुआ मगर कैसे।
भटकते हैं तलाश-ए-ख़ुशी में रंज देके औरों को,
सकून मिल न पायेगा उनको कभी मगर ऐसे.
रिस्ता-ए-दोस्ती है कायम यकीनो-ऐतबार पर,
ये अक्शे-आइना है मगर दिखेगा ही जैसे तैसे।
चढ़ी एक बार हांडी काठ की चूल्हे पे गर तेरी,
बमुश्किल ख़ाक हाथ आएगी वो भी जैसे तैसे।
मैं सब को यार मानता गया ये सोच कर 'अली'
झूट होगा तो मुक़ाबिल आईने के टिकेगा कैसे?

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