मेरी तो थी वो ग़ज़ल जब तलक कागज़ पे काबिज ना हुई
वसीयतों का हुनर 'मिर्जा' हम अपनी ग़ज़लो में छोड़ आये है................
थे मौजूद तमाम रास्ते काबा को काशी को
विसाले-यार के सजदे में वो कबीला छोड़ आये है ...
क्यों दहशत-ज़दा हम रहे सूली के खौफ से बराया उसी सूली पे अपनी 'काफ़िरगी' का तमगा हम भी छोड़ आये है .........
कुरान से मुख़ालफ़त करता हुँ मैं, ये कहते है ख़ुदा को चाहने वाले
दंगाइयों के शहर से फिर भी हम नमाजे छोड आये है ……………… !!!!
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