Friday, April 10, 2015

एक लड़की थी

एक लड़की थी जिसके सपने मेरे घर तक आते थे
एक लड़की थी जिसके अपने भी लड़कर थक जाते थे
एक लड़की थी जिसके आंसू भी रोये काली रातों में
एक लड़की थी अभागिन लकीरें थी जिसके हाथों में
वो लड़की पगली निर्मोही न जाने कैसे मान गयी
खुद को कुनबे पर दाव लगा क्या करने को ठान गयी
किसी अनजाने का हाथ पकड़कर वो फिर चली गयी
अपनों के ही मोह में आकर अपनों से ही छली गयी
मैं भी था जिसके ख्वाबों का ना उसने ख्याल किया
मैं भी था जिसने उससे फिर न कोई सवाल किया
मैं भी था उन डायन रातों में खुद को तनहा पाता था
मैं भी था लुभावन बातों से खुद को ही समझाता था
जाने क्यों हम दोनों से ये घोर प्रेम-अपराध हुआ
मिट गयी यादें धीरे धीरे फिर न कोई संवाद हुआ
जीवन की भाग दौड़ में यूँ ही इक दशक बीत गया
नियति से लगी होड़ में यूँ ही जीवन-संगीत गया
समंदर की सब लहरों में उसका अक्स खोजता रहा
वो बात नहीं इन चेहरों में यह शख्स सोचता रहा
सुना है वह लड़की अब रोते रोते हंसती है
उसके महल तले प्रेम-स्मृतियों की बस्ती है
अपनी बेटी को गले लगा वो मेरी बातें करती है
अपनों और सपनो की हर इक आहट से डरती है
मन की व्यथा-कथा तेरे देवता कहाँ सुनते हैं
खैर जाने दो आओ ना अब नए ख्वाब बुनते हैं

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