Monday, April 6, 2015

एक बादल रात भर बोता रहा

ज़िंदगी को आदमी ढोता रहा
बेख़बर इससे तू बस सोता रहा
इक उदासी की नदी बहती रही
इक समुन्दर उम्र भर रोता रहा
दूर तक ख़ामोशियाँ पसरी रहीं
देर तक उसका गुमां होता रहा
गीत धरती के सभी उसने लिखे
आदमी केवल यहाँ श्रोता रहा
शहर में रिश्ते नए मिलते गए
खुद से रिश्ता ही मगर खोता रहा
वादियों में आँसुओं की इक फसल
एक बादल रात भर बोता रहा

No comments:

Post a Comment