अगर कुछ हट के लिखता हूं तो रस्मे-मीर जाती है|
निबाहूँ तो ये डर इक़बाल की जागीर जाती है||
चलूं ग़ालिब के रस्ते पर तो फिर एहसान-दानिश ने|
जो देखे ख़्वाब उन ख़्वाबों की भी ताबीर जाती है||
अगर मैं हुस्न की शौखी नज़र-अंदाज़ करता हूं|
तो जो है इश्क के पेरों में वो जंजीर जाती है||
जो समझा दर्द साहिर ने उसे मैं छोड़ दूँ तो फिर|
किताबों से ग़रिबो-दर्द की तासीर जाती है||
हुकूमत के लिए लिक्खूं क़लम सोने के मिल जाएं|
मगर मज़लूम के हाथों से तो शमशीर जाती है||
क़लम की आबरू गर ज़ब्र के हाथों में सौंपूं हूं|
तो ज़ाया फैज़ अहमद फैज़ की तहरीर जाती है|
अगर मतलब बताता हूं हरे और गेरवे रंग का|
दिले-मासूम से यक्जिहती की तस्वीर जाती है||....
निबाहूँ तो ये डर इक़बाल की जागीर जाती है||
चलूं ग़ालिब के रस्ते पर तो फिर एहसान-दानिश ने|
जो देखे ख़्वाब उन ख़्वाबों की भी ताबीर जाती है||
अगर मैं हुस्न की शौखी नज़र-अंदाज़ करता हूं|
तो जो है इश्क के पेरों में वो जंजीर जाती है||
जो समझा दर्द साहिर ने उसे मैं छोड़ दूँ तो फिर|
किताबों से ग़रिबो-दर्द की तासीर जाती है||
हुकूमत के लिए लिक्खूं क़लम सोने के मिल जाएं|
मगर मज़लूम के हाथों से तो शमशीर जाती है||
क़लम की आबरू गर ज़ब्र के हाथों में सौंपूं हूं|
तो ज़ाया फैज़ अहमद फैज़ की तहरीर जाती है|
अगर मतलब बताता हूं हरे और गेरवे रंग का|
दिले-मासूम से यक्जिहती की तस्वीर जाती है||....
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