Tuesday, April 14, 2015

प्यासे दरियाओं में

पहला सा वो ज़ोर नही है मेरे दुख: की सदाओं में
शायद पानी नही रहा है अब प्यासे दरियाओं में
जिस बादल की आस में जोड़े खोल लिये है सुहागन नें
वो पर्वत से टकरा कर बरस चुका है सहराओं में
जाने कब तड़प और चमके सुनी रात को फ़िर डँस जाए
मुझ को एक रूपहली नागिन बैठी मिली है घटाओ में
पता तो आखिर पता था, गूंजान घने दरख़्तों ने
ज़मीं को तन्हा छोड़ दिया है इतनी तेज हवाओं में
दिन भर धूप की तरह से हम छाए रहते हैं दुनिया पर
रात हुई तो सिमट के आ जाते हैं दिल की गुफ़ाओ में
खड़े हुए जो साहिल पर तो दिल में पलकें भीग गई
शायद आँसू छुपे हुए हो सुब्हा की नर्म हवाओं में
ग़ज़ल के मंदिर में दीवाना मुरत रख कर चला गया
कौन उसे पहले पूजेगा बहस चली देवताओं में

No comments:

Post a Comment