हाँ मैं तुम्हें बहुत याद करता हूँ पहले की तरह। ठीक उसी तरह जब तुम मुझे मिली नहीं थी और मैं तुम्हें पाने के ख़्वाब देखता था। लेकिन मैं नाराज़ हूँ तुमसे। बहुत नाराज़। इतना नाराज़ कि ख़ुद को अकेला पाकर रो देता हूँ। इसलिए नहीं कि मैं कमज़ोर हूँ, इसलिए क्यूँकि मैं तुम्हें बहुत याद करता हूँ पहले कि तरह। मैं तुमपर बिगड़ जाऊँ, तुम मुझसे ख़फ़ा रहो, तुम मुझसे झगड़ जाओ, मैं तुमसे लड़ता रहूँ, हारता मैं ही हूँ। नुक़सान मेरा ही है क्यूँकि तुम करोड़ों में एक हो! तुम मुझे भूल जाओ, ये हो भी सकता है, मैं तुम्हें भूल जाऊँ, ये मुमकिन नहीं। अपनी बड़ी-बड़ी मूँछ और दाढ़ी वाली आँखें जब शीशे रोते हुए देखता हूँ, तो सोचता हूँ, कि अगर तुम मुझे ऐसे देखो तो क्या बर्दाश्त होगा तुमसे? क्या मेरी बेबसी, मजबूरियाँ और परेशानी को तुम अनदेखा कर पाओगे? नहीं! क्यूँकि प्रेम है तुम्हें उस लड़के से जो तुम्हें मन से चाहता है। तुम्हें मानता है। तुमपे गर्व है उसे! क्यूँकि तुम वो ख़्वाब हो जिसे हक़ीक़त बनाने के लोग ख़्वाब देखते हैं।तुम्हें कोई क्यूँ ना चाहे? ज़िंदगी तुम्हारे बग़ैर क्या होगी? तुम हमसे ग़ैर क्या होगी? ❤️
Wednesday, October 25, 2017
याद आती हो पहले कि तरह
दुनिया जाए भाड़ में
तुम्हारी ज़ुल्फ़ें रेशम सी नहीं
तुम्हारी भौहें तराशी हुई नहीं
तुम्हारी पलकें घनी नहीं
तुम्हारी आँखें भी बड़ी नहीं
तुम्हारे गाल गुलाबी नहीं
तुम्हारे होंठ गुलाब की पंखुड़ियों जैसे नहीं
तुम्हारी गर्दन भी सुराही जैसी नहीं
तुम्हारी बाहें भी चिकनी नहीं
ना तुम्हारी कलाई ही गोरी है
तुम्हारी टाँगों पर भी रोए हैं।
ये सब लिखने के बाद
मैं ये नहीं लिखूँगा कि
प्यार तो आत्मा से किया जाता है, जिस्म से नहीं
सच तो ये है कि प्यार जिस्म से ही होता है
बाकी सब ढकोसले हैं
दिल को बहलाने की बातें हैं
सच तो ये है कि जिस्म ही हमारा होता है
इंसान जिस्मों से ही प्यार करता है
क्यूंकि आत्मा, वो कभी हमारी नहीं हो सकती
तो उससे कैसा प्रेम।
और ये सब कुछ लिखने के बाद
मैं ये भी लिख सकता हूँ और
मरते दम तक लिख सकता हूँ कि
मुझे तुम्हारे इस रूप से ही प्रेम है
इतना प्रेम, जितना मैं चाह कर भी नहीं लिख सकता
दुनिया के लिए सुंदरता की अपनी परिभाषा है
दुनिया के लिए तुम सुंदर नहीं हो
पर दुनिया है क्या?
दुनिया के लिए, दुनिया लोगों का एक हुजूम है
पर मेरे लिए दुनिया तुम हो
और मैं अपनी दुनिया से यही कहना चाहता हूँ कि वो सुंदर है
वो मेरे लिए हमेशा सुंदर ही रहेगी।
तुम मेरे लिए सुंदर हो
बिना रेशमी ज़ुल्फ़ों के
बिना तराशी हुई भौहों के
बिना घनी पलकों के
बिना बड़ी आँखों के
बिना गुलाबी गालों के
बिना गुलाबी होंठों के
बिना सुराहीदार गर्दन के
बिना चिकनी बाहों के
बिना गोरी कलाइयों के
बिना चिकनी टाँगों के
मेरी दुनिया, तुम सुन रही हो ना?
तुम सुंदर हो, बहुत सुंदर
और वो लोगों वाली दुनिया
वो दुनिया जाए भाड़ में।
जिज्ञासा
एक दिन मैं उठूंगा
और निकल जाऊंगा
चुपचाप दबे पांव
बिना किसी से पूछे
बिना किसी को बताये
नहीं,किसी सत्य की खोज में नहीं
किसी मुक्ति की तलाश में भी नहीं
बुद्ध की राह पर भी नहीं
एक दिन मैं उठूंगा
और निकल जाऊंगा
ये गिनने
की आखिर इस दुनिया में
अब कितने बचे हैं
मेरी तरह के लोग
Tuesday, October 24, 2017
इंकार से डर था
“झूठे, तुमने तो कहा था कि तुम्हें फिज़िक्स ज़रा भी नहीं आती!” हैरत से आँखों को थोड़ा चौड़ा करते हुए वो बोली।
“तो और तरीका भी क्या था तुमसे पढ़ने का?” मुस्कुराते हुए उसने कुर्सी खींची।
“देखा, मेरी सहेलियां सही बोलती थीं कि ये समर हमेशा तुझसे मिलने के बहाने ढूंढता है। मैं ही बुद्धू थी।” गहरे भूरे रंग का फुल फ्रेम वाला चश्मा उतारते हुए उसने कहा।
“बनो मत, जान-बूझकर साइकिल धीरे चलाते कई बार देखा है मैंने तुम्हें।” कॉफ़ी आर्डर करते हुए समर बोला।
अनुष्का और समर आज दस सालों बाद अचानक एयरपोर्ट पर मिले थे। ज़िंदगी की दौड़ में दोनों इतनी तेज़ी से दौड़ रहे थे कि अब तक अतीत से अपॉइंटमेंट फिक्स ही नहीं हो पाया था। आज जब अचानक एक दूसरे को देखा, तो कुछ देर तक तो दोनों चुपचाप खड़े रहे। शायद लफ्ज़ ढूंढ रहे थे, फासले कम करने के लिए।
“स्कूल ख़त्म हुए इतने साल हो गए समर, तुम्हें मेरी याद भी नहीं आई?”
“शहर की सबसे मशहूर डॉक्टर हो तुम। मुझे लगा पहचानोगी भी नहीं। वैसे याद तो तुम भी कर सकती थी ना?” कॉफ़ी का पहला सिप लेते हुए वो बोला।
“तुम्हारा कुछ पता ही नहीं था।”
“अच्छा, सारा शहर जानता है मुझे। तुमने कभी नहीं सुना मेरे बारे में?”
“तुम तो जानते ही हो, मुझे ये लिटरेचर वगैरह में ज़रा भी इंट्रेस्ट नहीं। कैसे जानती मैं तुम्हें? अच्छा वीकेंड पर मिलोगे?”
“अगर यहाँ रहा तो कोशिश करूँगा।”
“घमंडी! तुम आज भी वैसे ही हो।” चिढ़ते हुए अनुष्का ने कहा।
“तुमसे ही तो सीखा है अनु।” कुछ याद करते हुए समर बोला।
चलो, अच्छा अगर मिल सको तो फ़ोन करना। हॉस्पिटल जाने का टाइम हो रहा है।”
“ये आज भी वैसी ही है, अपनी दुनिया में खोयी,” सोचते हुए समर मुस्कुराया।
अगली मुलाकात में औपचारिकता कुछ कम हो गयी थी और दोनों को अच्छा लगा था अपने अतीत से कुछ लम्हें चुराना। बीते दस साल में कैसे-कैसे उनके रास्ते अलग हुए थे, उसकी पूरी तहकीकात, सारे शिकवे, सारी शिकायतें करने के बाद दोनों जैसे दोबारा स्कूल के वो बच्चे बन गए थे।
डॉक्टर अनुष्का वापिस पिंक साइकिल वाली अनु बन गयी थी और अपने सबसे अच्छे दोस्त समर से लड़ रही थी, बिना बताये उसकी ज़िंदगी से गायब हो जाने के लिए।
“एक फ़ोन तो कर देते समर, क्या ज़रूरत थी ऐसे अचानक गायब होने की?”
“तुम्हें फर्क भी कहाँ पड़ता था अनु, मेरे होने ना होने का।”
“तुम इडियट हो। जाने से पहले एक बार कुछ कहा, कुछ पूछा तो होता।”
“तुम अपनी दुनिया में खोयी थी, मौका ही नहीं मिला।”
“इसलिए तुम चुपचाप चले गए। बिना मेरे बारे में सोचे।”
“हाँ, मुझे इंकार से डर था।”
कुछ पलों की ख़ामोशी और दोनों उठकर अपनी-अपनी गाड़ियों की तरफ बढ़ गये। यादें हमेशा खुशनुमा हों, ये ज़रूरी नहीं होता ना।
रिश्तों पर जमी बर्फ, जो उस रोज़ थोड़ा पिघली थी, अब फिर से सख्त हो गई थी । समर ने सोचा था अनुष्का उससे माफ़ी माँगेगी, बरसों पहले उसकी मोहब्बत को अनदेखा करने के लिये। अनुष्का ने सोचा था कि समर उससे माफी माँगेगा, उसे अकेला छोड़कर जाने के लिये। मगर दोनों ने कुछ नहीं कहा, दोनों एक जैसे जो थे।
आज उस शहर में समर का आखिरी दिन था। वो शायद हमेशा के लिये विदेश जा रहा था। इस शहर, इस देश से बहुत दूर, एक नयी दुनिया में। उसने जाने से पहले अनुष्का से एक बार बात करने की कोशिश की।
उसे याद था कि अनुष्का ने कहा था, “जाने से पहले एक बार बताया तो होता समर।”
मगर उसका फोन सुबह से बंद जा रहा था।
“ये कभी नहीं बदलेगी,” चिढ़ कर समर बड़बड़ा रहा था।
वो कोशिश कर रहा था मन कहीं और भटकाने की, मगर हर बार उसे अनुष्का से जुड़ी कोई बात याद आ रही थी। हार कर उसने अस्पताल फोन मिलाया।
“डॉक्टर अनुष्का से बात हो सकती है?”
“जी, आप कौन?”
“मैं उनका दोस्त हूँ, समर।”
“मैडम तो दस दिनों से नहीं आयीं। उनका एक्सीडेंट हुआ है। वो रेस्ट पर हैं।”
अस्पताल से अनुष्का का एड्रेस लेकर समर पागलों की तरह भागा। घर पहुँचा तो मेड ने बताया कि अनुष्का सो रही थी। समर उसके कमरे में गया और चौंक गया।
उस कमरे की दीवारों पर हर जगह समर था। उसकी तस्वीरें थीं- लेक्चर देते, बुक फेयर्स में बोलते, ईनाम लेते। इन दस सालों का पूरा हिसाब था उन दीवारों पर। शायद वो उससे एक पल को भी दूर नहीं हुई थी।
“बड़ी देर लगा दी लेखक महोदय,” आहट से जागी अनुष्का ने कहा।
“अनु तुमने कुछ कहा, कुछ पूछा क्यों नहीं कभी?”
“तुम अपनी दुनिया में खोये थे समर, और मुझे भी इंकार से डर था।”
Sunday, October 22, 2017
ज़रा ज़रा महकता है
नजाने कोई कितना तुझे चाहूँ
तुझे याद करते-करते
हर सांस में लूँ
नाम तेरा...
बहाने कई पर जीता जाऊँ
तुम पर यूँ मरते-मरते
दिन रात ये पालूँ
ख्वाब मेरा...
बांहों में यूँ ठहरी तू
किस्मत बन के ए जानेजान,
सजदा करूँ, दुआ मांगूँ
खुदा रहे ऐसे मेहरबान...
ज़रा ज़रा महकता है...
इस थकते-हांफते शहर में
इस थकते-हांफते शहर में
कुछ चीजें बार-बार होती हैं,
जिंदगी कभी खलबली भरी रात
तो कभी फुर्सत का इतवार होती है।
बुजुर्गों के माथे की झुर्रियां
धूप पर कुहनी टिकाए होती हैं,
जिंदगी गांवों की सिंदूरी शाम
तो कभी शराब सी बदनाम होती है।
कालांतर में पढ़ी जाए
"इतिहास" वो किताब होती है,
जिंदगी कभी रोटी की खुश्बू सी महकती
तो कभी पसीनायी दुर्गंध होती है।
रहता है आंखों में डर
तो कभी प्रेम से सराबोर होती है,
जिंदगी बाप का छियालिसवाँ साल
तो कभी बेटे का 23वां साल होती है।
पेग बनाने के लिए गिलास में
उड़ेली गयी शराब होती है,
जिंदगी तर्जनी पर कसे कंचे का निशाना
तो कभी Lic के प्रीमियम का हिसाब होती है।
परायी नार से हुई तकरार
आजकल बलात्कार होती है,
जिंदगी टीनएज की अल्हड़ता
तो कभी वयस्क होने का अहसास होती है।
बीयर की बोतल,ब्लू फिल्में,स्त्री के वक्ष
अब ये बातें आम होती हैं,
जिंदगी टपरी के पास खड़े होकर
फूंके गए सुट्टे से निकले धुएं सी आज़ाद होती है।
इस थकते-हांफते शहर में
कुछ चीजें बार-बार होती हैं,
जिंदगी कभी खलबली भरी रात
तो कभी फुर्सत का इतवार होती है।
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम ओ अतलस ओ कमख़ाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग