एक माँ का अपने दो बच्चों के साथ,
जोर से होती हुई बरसात से बचते हुए,
बस स्टेशन पर अपने दो मासूमों को,
बड़ी मुश्किल से संभाल पाना,
एक छोटे का गोदी मैं बिलखना,
और एक कुछ बड़े का छतरी को गिराकर न उठाना,
माँ को परेशान करना,
और उस अवस्था मैं अपने पति का इंतज़ार करना की,
वो कुछ ला रहे खुद के और,
बच्चों के खाने केलिए,
जिन्दगी की सच्चाई दिखता हैं,,
हर सुबह निकलता हूँ
एक आम इंसान की तरह,
जिन्दगी की जद्दो जहद में से,
कुछ खुद के लिए,
कुछ खुद वालों के लिए,
खुशियाँ खरीदने के साधन बटोरने,
न इतबार की छुट्टी
न वक़्त की पावंदी,
न खुद के लिए वक़्त,
न घर के लिए,
सिर्फ शिकायतें ही शिकायतें,
कहाँ जाए एक आम इंसान,
घुटता रहता खुद ही खुद में,
क्या यही जिन्दगी हैं,
नहीं हैं इस जिन्दगी के सवालों के जवाब
,न मेरे पास ,
न किसी के पास,
बस यही हकीक़त हैं,
बाबू पापी पेट का सवाल हैं,
यही जिन्दगी हैं,यही जिन्दगी हैं,